स्वप्न में पिता | ग़ुलाम मोहम्मद शेख़बापू, कल तुम फिर से दिखेघर से हज़ारों योजन दूर यहाँ बाल्टिक के किनारेमैं लेटा हूँ यहीं,खाट के पास आकर खड़े आप इस अंजान भूमि परभाइयों में जब सुलह करवाईतब पहना था वही थिगलीदार, मुसा हुआ कोट,दादा गए तब भी शायद आप इसी तरह खड़े होंगेअकेले दादा का झुर्रीदार हाथ पकड़।आप काठियावाड़ छोड़कर कब से यहाँ क्रीमिया केशरणार्थियों के बीच आ बसे?भोगावो छोड़, भादर लाँघरोमन क़िले की कगार चढ़डाकिए का थैला कंधे पर लटकाए आप यहाँ तक चले आए—पीछे तो देखो दौड़ आया है क़ब्रिस्तान!(हर क़ब्रिस्तान में मुझे आपकी ही क़ब्र क्यो दिखाई पड़ती है?)और ये पीछे-पीछे दौड़े आ रहे हैं भाई(क्या झगड़ा अभी निपटा नहीं?)पीछे लकड़ी के सहारेखड़े क्षितिज के चरागाह मेंमोतियाबिंद के बीच मेरी खाट ढूँढ़ती माँ।माँ, मुझे भी नहीं दिखताअब तक हाथ में थावह बचपन यहीं कहींखाट के नीचे टूटकर बिखर गया है।
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2:23
Us Din | Rupam Mishra
उस दिन | रूपम मिश्र उस दिन कितने लोगों से मिली कितनी बातें , कितनी बहसें कींकितना कहा ,कितना सुनासब ज़रूरी भी लगा था पर याद आते रहे थे बस वो पल जितनी देर के लिए तुमसे मिली विदा की बेला में हथेली पे धरे गये ओठ देह में लहर की तरह उठते रहे कदम बस तुम्हारी तरफ उठना चाहते थे और मैं उन्हें धकेलती उस दिन जाने कहाँ -कहाँ भटकती रही वे सारी जगहें मेरी नहीं थीं मेरी जगह मुझसे छूट गयी थीतो बचे हुए रेह से जीवन में क्या रंग भरतीहवा में जैसे राख ही राख उड़ रही थी जिसकी गर्द से मेरी साँसे भरती जा रही थींवहाँ वे भी थे जिनसे मैं अपना दुःख कह सकती थीलेकिन संकोच हुआ साथी वहाँ अपना दुख कहतेजहाँ जीवन का चयन ही दुःख था और वे हँसते-गाते उन्हें गले लगाते चले जा रहे थेजहाँ सुख के कितने दरवाज़े अपने ही हाथों से बंद किये गए थेजहाँ इस साल जानदारी में कितने उत्सव, ब्याह पड़ेंगे का हिसाब नहींकितने अन्याय हुएकितने बेघर हुएऔर कितने निर्दोष जेल गये के दंश को आत्मा में सहेजा जा रहा था फिर भी वियोग की मारी मेरी आत्मा कुछ न कुछ उनसे कह ही लेती पर वे मेरे अपने बंजर नहीं थे किमैं दुःख के बीज फेंकती वहाँ और कोई डाभ न उपजती पर कहाँ उगाते वो मेरे इस गुलाबी दुःख कोजहाँ की धरती पर शहतूती सपने बोये जाते हैंऔर फ़सल काटने का इंतज़ार वहाँ नहीं होता बस पीढ़ियों के हवाले दुःखों की सूची करके अपनी राह चलते जाना होता है ।
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2:55
Manushya | Vimal Chandra Pandey
मनुष्य - विमल चंद्र पाण्डेय मुझे किसी की मृत्यु की कामना से बचना हैचाहे वो कोई भी होचाहे मैं कितने भी क्रोध में होऊँऔर समय कितना भी बुरा होसामने वालामेरा कॉलर पकड़ कर गालियाँ देता हुआक्यों न कर रहा हो मेरी मृत्यु का एलानमुझे उसकी मृत्यु की कामना सेबचना हैयह समय मौतों के लिए मुफ़ीद हैमनुष्यों की अकाल मौत का कोलाज़ रचता हुआफिर भीमैं मरते हुए भी अपनी मनुष्यताबचाए रखना चाहूँगाये मेरा जवाब होगा कि मैं बचाए जाने लायक़ थाकि हम बचाए जाने लायक़ थे!
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1:55
Apne Prem Ke Udveg Mein | Agyeya
अपने प्रेम के उद्वेग में | अज्ञेय अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुमसे कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है।तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है।तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उससे एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है—कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझसे अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
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1:58
Tum | Adnan Kafeel Darwesh
तुम | अदनान कफ़ील दरवेशजब जुगनुओं से भर जाती थीदुआरे रखी खाटऔर अम्मा की सबसे लंबी कहानी भीख़त्म हो जाती थीउस वक़्त मैं आकाश की तरफ़ देखताऔर मुझे वहठीक जुगनुओं से भरी खाट लगताकितना सुंदर था बचपनजो झाड़ियों में चू करखो गयामैं धीरे-धीरे बड़ा हुआऔर जवान भीऔर तुम मुझे ऐसे मिलेजैसे बचपन की खोई गेंदमैंने तुम्हें ध्यान से देखामुझे अम्मा की याद आईऔर लंबी कहानियों कीऔर जुगनुओं से भरी खाट कीऔर मेरे पिछले सात जन्मों कीमैंने तुम्हें ध्यान से देखाऔर संसार आईने-सा झिलमिलाया कियाउस दिन मुझे महसूस हुआतुमसे सुंदरदरअसल इस धरती परकुछ भी नहीं था।
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।